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काम महाशत्रु है (Lust is enemy)


परमपिता परमात्मा के महावाक्य है - ''काम तुम्हारा सबसे बड़ा दुसमन है। इसपर जीत पाने से तुम जगत जीत बनोगे, स्वर्ग के मालिक बनोगे।''

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English: It is the Supreme Father's versions that: ''This vice of lust is your greatest enemy. If you conquer this, defeat it, you will get victory over the world. You will be able to earn the fortune of heaven (golden age)'' Refer: General Articles (listed) and New Articles (Hindi & English)

Holy Swan - Symbol of Purity

प्र: काम महाशत्रु है.... आदि, मध्य अंत दुःख देता है यह वाक्य मुरलियों में कई बार आता है । मैं ज्ञान में नया हूँ और अब तक कुमार हूँ । क्या यह बात किसी से विवाह करके सम्बन्ध बनाने पर भी लागू होता है? कृपया स्पष्ट करें... आत्मा वास्तव में निराकारी, निर्विकारी ( viceless ) है। देहभान के कारण ही विकार का जन्म होता है। याने आकार से विकार। इसलिये बाबा बार बार कहते हैं अपने को आत्मा समझो, अशरीरी बनो। कोई भी विकार आत्मा को उसके वास्तविक pure stage अर्थात पावन स्थिति से नीचे गिराता है। जिस किसी भी कर्म से आत्मा के गुण और शक्तियां नष्ट होती है उसे गिरना कहा जाता है। विकार में जाने को ही पशुता कहा गया है। यह दैवी गुण की श्रेणी में नहीं आता। देवतायें निर्विकारी होते हैं।

जानवरों में भी विकार होते हैं परन्तु वे भी प्राकृतिक नियमानुसार चलते हैं परन्तु आज का मनुष्य उससे भी गिर गया है । काम विकार में मनुष्य की शक्तियां अन्य विकारों की तुलना में ज्यादा नष्ट होती है । पुनः उस शक्तियों को संग्रहित होने में बहुत समय लग जाता है। इसलिये बाबा कहते हैं *पांचवी मंजिल से नीचे गिरना* । इस कारण ही काम विकार में जाने वाले को *पतित* कहा गया है। कई ऐसे छोटे जीव हैं जिनकी केवल एक बार ही काम विकार में जाने से मृत्यु हो जाती है। एक स्लोगन भी है *काम विकार नरक का द्वार* और यह सही भी है क्योंकि द्वापर युग से देवतायें जब इसके चंगुल में फसें तब से नरक की शुरुआत हुई। अब कलियुग अंत में तो इसकी अति हो गयी है जिसके परिणाम आज दुनिया में *दुःख,अशांति* के रूप में देख रहे हैं ।

काम का उम्र से लेना देना नहीं यह एक अग्नि की तरह है जो *चिंगारी* के रूप में प्रकट तो होती है परन्तु फिर एक *ज्वाला* का रूप धारण कर लेती है जिसमें आत्मा के सभी *गुण व शक्तियां स्वाहा* हो जाती है, विवेक काम नहीं करता । मुख्यत: यह *पवित्रता रूपी संपत्ति को ख़ाक* कर देता है और *आत्मा काली बन जाती है* । इस पर लगाम लगाने के लिए ही द्वापर से हमारे ऋषि मुनियों ने विवाह प्रथा की रचना की ताकि केवल संतति उत्पत्ति के लिए ही इसका उपयोग हो सके और उसकी पालना की जिम्मेवारी लें। परन्तु धीरे धीरे इसका दुरुपयोग होता गया । विवाह के पीछे का जो मकसद था वह खोता चला गया । पतितपना में दुःख नहीं होता तो परमात्मा को *हे पतित पावन आओ* यह कहकर नहीं पुकारते । कलियुग के अंत में काम के इस विकराल रूप के कारण ही परमात्मा को अवतरित हो *काम महाशत्रु है* यह महावाक्य उच्चारने पड़े जो *गीता शास्त्र* में भी है परन्तु कोई इसे फॉलो नहीं करता । विवाह तो सतयुग , त्रेता में भी होता है परन्तु वहाँ विकार के कारण शारीरिक सम्बन्ध नहीं बनता बल्कि योग बल के द्वारा संतान का जन्म होता है इसलिये वहाँ पर देवतायें सुख शान्ति के मालिक हैं। *परमात्मा अब वही नयी पावन दुनिया की स्थापना करने आये हैं जिसका आधार योगबल है जो पवित्रता को धारण करने से प्राप्त होता है, हमें अब उसकी तैयारी करनी है* । भोगबल का अनुभव तो हम ६३ जन्म करते आये हैं और बदले में दुःख, अशांति ही पाया तो क्या अब ऐसी पवित्रता, सुख, शान्ति वाली दुनिया में राज्य भाग्य लेने के लिए एक जन्म के लिए पवित्रता का व्रत नहीं ले सकते ? क्या यह सौदा बहुत महंगा है? इसका निर्णय आप को स्वयं ही लेना है । *काम का अर्थ केवल स्थूल विकार से ही नहीं लेना चाहिए। जब तक मन, बुद्धि में भी इसका चिंतन चलता रहेगा तब तक यह अपना प्रभाव सूक्ष्म रूप से करता रहेगा और हमारी स्थिति को गिराता रहेगा। किसी भी प्रकार की कामना रखना भी काम के अंतर्गत ही आता है। इसलिये जब तक कामनाओं को जड़ से नहीं निकालेंगे तब तक काम से पूरी तरह मुक्त होना संभव नहीं है। ओम शांति

* (video) काम महा-शत्रु - Soul Talk *

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