भक्ति में शब्दों का खेल चलता है तो ज्ञान में संकल्पों का । भक्ति में गायन और पूजन तो ज्ञान में पूज्य बनने का पुरुषार्थ होता है । भक्ति में सुनना और कहना होता है तो ज्ञान में लक्ष्य निरधारित कर दृढ़ इच्छा शक्ति से अपनी मंजिल तरफ बढ़ना होता है जिसके लिए *बहुतकाल का पुरुषार्थ* जरुरी है तब कहीं जाकर सफलता प्राप्त होती है । *सहज पुरुषार्थ* करो जिससे हल्का और सरल बनो । *बोझिल और कन्फ्यूज्ड* नहीं बनना है । *ज्ञान धारणा के लिए होता है तो सेवा संतुष्टता के लिए । यह रिजल्ट नहीं तो क्या फायदा* । एक स्थान पर बैठ योग करना है तो चलते फिरते भी अभ्यास होना चाहिए, शब्दों में आना पड़ता है तो मौन से भी काम निकलना चाहिए, तन का ख्याल रखें तो मन का भी, धन जीवनयापन के साथ साथ परमार्थ के श्रेष्ठ कार्य में भी सफल करें । हर बात में *बैलेंस* होना चाहिए । जो भी कार्य करें उसका आधार *प्यूरिटी* हो तभी कार्य *श्रेष्ठ और विशेष* होगा।
इस देह की भ्रकुटी में आत्मा की स्मृति रहे तो दूसरों प्रति भी आत्मिक दृष्टि रहे , लाइट के कार्ब में रहकर ५ तत्वों को भी सकाश देने का अभ्यास करते रहें । वृत्ति और दृष्टि श्रेष्ठ रहेंगे तो स्थिति भी ऊँची हो जायेगी । *अभी समेटने की शक्ति को बढ़ाएं , ज्यादा विस्तार में नहीं जायें, वृत्ति व दृष्टि सदा बेहद में रहे, एक बाप का ही आधार हो, बाप के ही दिल्ररूपी तख़्त पर सदा विराजमान रहें, बाप के समीप रहेंगे तो समान बन जायेंगे । अब तक जो भी खजाने जमा किये हैं वह किसलिए ? चेक करो, टेस्ट करो और यूज़ करो* । use करेंगे तो पता चलेगा कि काम कर भी रहा है , नहीं तो अंत समय में धोखा भी दे सकता है । शस्त्रों को भी युद्ध करने के पहले अच्छी तरह से चेक कर रेडी करते हैं तुम्हारा भी माया के साथ रूहानी युद्ध है तो यहाँ भी उसी तरह से लागू होता है ।
*अपने रहे हुए कमी कमजोरियों को, पुराने स्वाभाव संस्कारों को, कर्मों के हिसाब किताब को पूर्ण रूप से समाप्त करना ही समाप्ति वर्ष मनाना है,* संकल्प मात्र में भी विकारों की अविद्या रहें शुद्रपना के संस्कार कुछ भी शेष ना रहे । जरा भी कहीं *लगाव, झुकाव, मनमुटाव, आसक्ति,अहंभाव, हदपना के संस्कार* अंश वंश में रहे हुए हैं तो समाप्ति की परमाहुती नहीं दे सकेंगे व नयी दुनिया का महाद्वार नहीं खोल पायेंगे ।
*पुरुषार्थ की असहजता, मन की चंचलता, वैमनस्यता व विषय लोलुपता, बुद्धि की संकीर्णता एवं संस्कारों की अशुद्धता को सदा के लिए अलविदा कहना ही समाप्ति वर्ष मनाना है* । अब *सुनना, सुनाना नहीं* बस *बनने पर ही विशेष अटेंशन* होना चाहिए याने *स्व की कमी कमजोरी* को परख उसका श्रेष्ठ दैवी संस्कारों में *परिवर्तन.. परिवर्तन.. परिवर्तन* ।
*दूसरों को बदलने से न आप बदलोगे न दूसरों को सुनने से बदलेंगे, स्वयं को ही स्वयं को बदलना है अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति और स्वानुभूति के आधार से ।*
देवताई संस्कारों से सुसज्जित 🤴🏻 हमारा आत्मा रूपी⭐ रूहानी विमान परमधाम एअरपोर्ट पर पहुँचने के लिए सदा तैयार रहे,बस ready, steady, go ️पांच तत्वों के आकाश को पार कर परमतत्व के अनंताकाश में विश्राम और परमशान्ति पाने के लिए और पुनः स्वर्णिम दुनिया में उड़ान भरने के लिए ।
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