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विश्व नाटक चक्र - ५००० वर्स (४ युग)

"विश्व एक रंग मंच है और हम सभी अभिनेता हैं"।  इसकी कोई शुरुआत नहीं है, कोई अंत नहीं है। पूर्ण चक्र 5000 वर्ष दिखाया गया है जिसमें 4 युग (समय खंड) का उल्लेख किया गया है। अपने उच्चतम चरण (स्वर्ण युग) से, अपने निम्नतम स्तर (लौह युग) तक। विश्व नाटक मानव आत्माओं, उनकी वृद्धि और गिरावट, जीत और हार, खुशी और पीड़ा, ज्ञान और अज्ञानता, स्वतंत्रता और कर्म के बंधन की कहानी है। यह अच्छी और बुरी ताकतों के खेल, और 4 अलग-अलग चरणों के माध्यम से है, जिसके माध्यम से मानव आत्माएं और प्रकृति गुजरती है। यह इस अनन्त विश्व चक्र के माध्यम से अपनी नाटकीय यात्रा पर मानवता की कहानी है। यह वास्तव में अब तक की सबसे बड़ी कहानी है।

यह सुख और दुख, दिन और रात का एक चक्र है, जिसे स्वर्ग और नरक के रूप में याद किया जाता है। रात के बाद, दिन आता है और ऐसे चक्र फिरता है। लेकिन यह भी समझाया गया है कि हम अपने व्यक्तिगत जीवन के 75% के लिए खुशी का अनुभव करते हैं। एक बच्चा शुद्ध है, तो सभी उसे प्यार करेंगे। इस प्रकार कहा जाता है 'बच्चे भगवान के बराबर है'। अब यह एक बड़ी तस्वीर है। जब हम तांबे की उम्र में पूजा करना शुरू करते हैं, तो सबसे पहले हम ईश्वर की भक्ति के कारण शुद्ध रहते हैं। फिर धीरे-धीरे धीरे-धीरे, लौह युग के अंत तक जब हम vices में गिरते रहते हैं, हम अधिक दुख का अनुभव करते हैं। चक्र के आधे हिस्से को नई दुनिया (स्वर्ग) कहा जाता है, अन्य आधे को पुरानी दुनिया कहा जाता है।

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सतयुग

सतयुग  के साथ ही एक बार फिर सृष्टि चक्र का खेल आरम्भ होता है। यह नए कल्प का पहला युग है। सतयुग के आरम्भ मे ही देवात्मा - श्री कृष्ण का इस संसार मे आगमन होता है। उनके आगमन के पश्चात् अनेक देवात्माएँ भी पृथ्वी पर आने लगती हैं। इस प्रकार नौ लाख सर्व गुण संपन्न एवं सर्व शक्ति स्वरुप देवात्माओं के साथ नई दुनिया का प्रारम्भ होता है। इस युग को ही स्वर्णिम युग या स्वर्ग के नाम से जाना जाता है।वहां प्रत्येक वस्तु अपने उत्कर्ष अवस्था मे होती है। प्रकृति भी आत्माओं की दासी होती है। प्रत्येक आत्मा वहां सदैव प्रसन्नता का अनुभव  करते वसुधैव कुटुम्बकम के रूप मे रहती हैं। सिर्फ 'भारत' खण्ड ही इस पृथ्वी पर रहता है जो चारों ओर से महासागर से घिरा रहता है.प्रत्येक के पास अथाह जमीन होती है जिससे वह अपने रहने हेतु भवन का निर्माण कर सकें - किसी प्रकार की सीमा नहीं होती। वहां महाराज एवं महारानी,मात- पिता के समान होते हैं और सभी प्रजा एक परिवार। बच्चे शिक्षा हेतु पाठशाला जा कर चित्रकला, गीत, वादन आदि सीखते हैं। सतयुग में किसी भी प्रकार के दुःख का नामोनिशान नहीं होता। प्रत्येक आत्मा सभी वस्तुओं से परिपूर्ण होती है। 

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त्रेतायुग 

त्रेता युग,सतयुग के १२०० वर्ष बीतने के पश्चात् प्रारम्भ होता है। सृष्टि चक्र का द्वितीय युग होने के बाद भी दैवीय गुणों से सम्पन्न है। सतयुग से त्रेता युग में निरंतर आत्माओं की संख्या में बृद्धि होती रहती है। यह वो समय है जब राज्य एवं धर्म में धीरे -धीरे अलगाव प्रारम्भ होने लगता है। अब राजा एवं रानी को मात-पिता नहीं कह सकते क्योंकि परिवार की बृद्धि हो जाती है। प्रकृति एवं आत्माओं का क्रमिक व्ह्रास होने लगता है। सोलह कला संपन्न आत्माएं अब १४ कला की स्थिति में आ जाती हैं।

इस युग को त्रेता अर्थात त्रुटि का युग इसलिए कहा जाता है क्योंकि सतयुग - सत्य की दुनिया की तुलना में इस युग में सुक्ष्म त्रुटियां आनी शुरू हो जाती हैं।स्वर्ण के सामान पूर्ण पावन आत्मायें अब गिरती कला में आकर रजत अर्थात चांदी के सामान हो जाती हैं परन्तु त्रेतायुग में अब भी आत्माओं में विकारों की प्रवेशता नहीं होती,केवल गुणों की शुध्धता में कमी आ जाती है।

सतयुग एवं त्रेता युग ,दोनों में ही दुखों का नामोनिशान नहीं होता परन्तु शिव बाबा ने अनेकों मुरलियों के द्वारा बताया है की सिर्फ सतयुग को ही स्वर्ग कहेंगे ,त्रेता युग को नहीं। त्रेतायुग आंशिक रूप से त्रुटि के कारण पूर्ण रूप से नई दुनिया नहीं है। बिलकुल वैसे ही जैसे नवीन ईमारत निर्माण के कुछ समय पश्चात् ही प्राचीन मान ली जाती है। इसी प्रकार स्वर्ग या सतयुग समय के साथ पुराना  हो कर त्रेतायुग में परिवर्तित हो जाता है। परिवर्तन की ये प्रक्रिया बहुत ही धीरे धीरे होती है।

द्वापर युग

द्वापर युग को पूर्णतया सुख की दुनिया तो नहीं कह सकते परन्तु यह सृष्टि चक्र का अत्यंत महत्वपूर्ण समय है। इस समय सभी आत्मायें स्वयं  के वास्तविक स्वरुप को,आत्मिक गुणों को विस्मृत कर देती हैं,परिणामस्वरूप आत्माभिमानी स्थिति से देहाभिमानी स्थिति को प्राप्त करती हैं। देहाभिमानी स्थिति अपने साथ विकारों की प्रवेशता ले आता है जो कि सर्व दुखों का मूल कारण है। 

आत्मा एवं प्रकृति का सम्बन्ध भी समझना अति सूक्ष्म राज है। जब आत्माएं पूर्ण पवित्र होती हैं तो प्रकृति भी सम्पूर्ण पावन होती है किन्तु जैसे जैसे आत्माएं पतित होती जाती हैं ,प्रकृति भी अपनी पावनता खो देती है। यही वह समय है जब भारत में भूकंप आदि आने से व प्रकृति की हलचल से अधिकांश स्वर्ण भूगर्भ में चले जाते हैं। प्रकृति की हलचल व प्राकृतिक आपदाएं द्वापर युग के आरम्भ में ही होती हैं जिसमे महल इत्यादि ,अधिकांश सतयुगी वैभवों का विनाश हो जाता है। अधिकतर मनुष्य वन में रहने लगते हैं ,यही वह समय है जब दुखों के कारण मनुष्यात्माएं परम-पिता परमात्मा को पुकारने लगती हैं और भक्ति का प्रारम्भ होता है।

द्वापर युग में मुख्य परिवर्तन -

१ -आत्माभिमानी स्थिति से देहाभिमानी स्थिति में आने से विकारोंवश जीवन में दुखों की प्रवेशता।

२ - अनेक वैभव के समाप्त होने व दुखों के कारण ईश्वर की याद एवं भक्ति का प्रारम्भ।

यह समय था ईश्वर को ढूंढने के लिए अनेक शास्त्रों की रचना करने का क्योंकि स्वयं को भूलने के कारण ईश्वर को याद करने की आवश्यकता हुई एवं ईश्वर को सत्य रूप से जानने के लिए सत्य ज्ञान की खोज आरम्भ हुई। इन्हीं शास्त्रों व भक्ति के कारण संसार अभी तक पूर्ण रूप से अशांत नहीं हुआ था। इस युग में भक्ति मार्ग ने अपना प्रभाव आरम्भ कर दिया था। द्वापर युग में ही धर्मों की स्थापना हुई।

कलयुग एवं संगम युग

कलयुग के प्रारम्भ तक ३ मुख्य धर्म - इस्लाम, बौधि एवं क्रिस्चियन धर्म की स्थापना हो चुकी होती है परन्तु तब तक मनुष्यात्माएं पूर्णतः अपनी स्मृति विस्मृत कर चुकी होती हैं। कलयुग है समय- भ्रष्टाचार का,अनीतियों का और पूर्ण नैतिक पतन का.....आत्मायें स्वयं के बुरे संस्कारों में जकड़ी हुई होती हैं। समय के साथ संसार अनेकों धर्मों एवं जातियों में विभाजित हो जाता है।दुःख अपनी चरम अवस्था पर पहुँच जाता है।धर्म युद्धः और दुखद अंधकार कलयुग की मुख्य निशानी हैं।

 

राजा विकारवश कर्मेन्द्रियों पर नियंत्रण खोने से राज्याधिकार भी खो देते हैं। कलयुग अंत तक भारत में दरिद्रता ,गरीबी एवं अराजकता का बोलबाला हो जाता है। तामसिक भक्ति भी अपनी चरम सीमा पर होती है क्योंकि अथाह दुखों के कारण मनुष्यात्माओं को और कोई मार्ग नहीं सूझता।

 

यही वह समय है जब परमात्मा स्वयं अवतरित हो अपना सत्य परिचय देते हैं एवं सत्य ज्ञान दे सत्य धर्म की स्थापना करते हैं। इस समय को संगम युग या पुरुषोत्तम युग  के नाम से जाना जाता है क्योंकि इसी समय परमात्मा आत्माओं को सत्य ज्ञान से अवगत करा आत्मा रूपी पुरुष को उत्तम बनाते हैं एवं आदि सनातन देवी देवता धर्म की स्थापना करते हैं। कलयुगी अंधकारमय संसार से मुक्ति दिलाते हैं।

 

संगम युग पर विश्व नाटक का सूत्रधार ,परात्मा,स्वयं मुख्य एक्टर बन जाता है। वह बड़ी शांति के साथ विश्व के एक स्थान ( भारत ) में अवतरित होकर सत्य ज्ञान देते हैं। आत्मा,परमात्मा,सृष्टि चक्र ,स्वर्ग का राज्य भाग्य एवं मुक्ति - जीवन मुक्ति का मार्ग बताते हैं जो जीवन को पावन बनता है। आत्माओं के ज्ञान चक्षु मुरली के ज्ञान एवं ज्ञान रत्नों  के मनन-चिंतन द्वारा खुल जाते हैं। आत्मा स्व प्रति जाग्रत  हो जाती है। परमात्मा द्वारा दिए सत्य ज्ञान से हम आत्मायें स्वयं की सम्पूर्ण जीवन यात्रा - पावन से पतित,सतोप्रधान से तमोप्रधान आदि भली भांति समझ सकते हैं। ईश्वरीय ज्ञान में निश्चय एवं निष्ठा से तमोगुणी अंधकार छंटने लगता है और आत्मायें एक नये सवेरे की तरफ अग्रसर होने लगती हैं।

यह समय है जब मनुष्यता इस कल्प की पूर्णता पर है, पुराना कल्प समाप्त होने को है और नया सतयुगी संसार, एक नया कल्प आरम्भ होने की तैयारी में है।

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