
मेरा दिव्य स्वरूप उभरकर आया
𝐏𝐨𝐞𝐭: BK Mukesh Modi
चर्मचक्षु से देखी दुनिया, सबकुछ मन को भाया
कहाँ कहाँ न जाने मैंने, अपने मन को भटकाया
पास रहा न कुछ भी, खोया क्या और क्या पाया
हजारों दुख सहकर भी, जीने को मन ललचाया
भोगकर इतनी पीड़ाएं, ये आकर्षण छूट न पाता
और थोड़ा सा मैं जी लूं, गीत यही मन मेरा गाता
कब तक मायाजाल में, खुद को रहूंगा जकड़ता
छूटने वाले जीवन को, कब तक रहूंगा पकड़ता
बिगड़ गया मेरा चरित्र, हावी हो गए पाँच विकार
गंवाई आत्मा की शक्ति, दुख भोग रहा मैं हजार
चर्मचक्षु मैंने बंद किए, अन्तर्मन को जब टटोला
मेरा ही आत्म स्वरूप, स्वयं मुझसे बात ये बोला
अपने आपको देखो जरा, तुम ही थे दिव्य महान
अपने तन को समझ लिया, तुमने अपना मकान
छोड़ इसे भी जाना होगा, क्यों न याद तुम्हें आया
अपने जीवन में स्वयं तुमने, दुखों का ढ़ेर लगाया
उपाय बताऊं इसका तुझे, कर ले आत्म चिन्तन
गुणों से कर अपना श्रंगार, टूटेंगे दुखों के बन्धन
ज्ञान आत्मा का पाकर, नवचेतन का अंकुर फूटा
बरसों पुराना देहभान, एक आत्म निश्चय से टूटा
आत्म केन्द्रित होकर, विकारों से मुक्त होने लगा
बोझ हटे मन से मेरे, खुशियों को मैं संजोने लगा
अपने जीवन को मैंने, दिव्यता से भरपूर बनाया
सबके समक्ष मेरा, दिव्य स्वरूप उभरकर आया ||
" ॐ शांति "
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